Sunday, November 2, 2025

CH18-01 | अर्जुन का प्रश्न: संन्यास और त्याग का सार – गीता, अध्याय १८, श्लोक १

परिचय

श्रीमद्भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय का पहला श्लोक योग और जीवन की जटिलता को स्पष्ट रूप से सामने लाता है। अर्जुन, जो युद्धभूमि में अपने मार्गदर्शक श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन प्राप्त कर रहे हैं, एक अत्यंत गूढ़ प्रश्न पूछते हैं — संन्यास और त्याग का वास्तविक तत्त्व क्या है? दोनों में क्या अंतर है? उनका अंतिम उद्देश्य आत्मज्ञान और कर्म की सही समझ है।

श्लोक

अर्जुन उवाच संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥१८- १॥

हिन्दी भावार्थ:

अर्जुन बोले: हे महाबाहु श्रीकृष्ण, मैं संन्यास (कर्मों के पूर्ण त्याग) और त्याग (कर्म के फल की इच्छा के त्याग) का वास्तविक तत्त्व जानना चाहता हूँ। हे हृषीकेश, हे केशिनिषूदन! कृपया इन दोनों का भेद भी पृथक-पृथक करके बताइये।

समस्या की पृष्ठभूमि

अर्जुन के इस प्रश्न का महत्व उसके गहरे अंतर्द्वंद्व में छुपा है। जीवन और धर्म के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए मनुष्य को अक्सर यह समझ नहीं आती कि क्या सभी कर्म छोड़ देना ही मोक्ष का मार्ग है या अपनी जिम्मेदारियों का पालन करते हुए फल की आसक्ति छोड़ देना ही सार्थक है। गीता का यह श्लोक उसी द्वंद्व का दर्पण है।

संन्यास बनाम त्याग

संन्यासत्याग
कर्म का परित्यागकर्म का फल छोड़ना
जीवन की सभी जिम्मेदारियों से विमुखताकर्तव्य का पालन, बिना फल की इच्छा के
साधना की धारा में कर्म-शून्यतासाधना में फल-सून्यता

 श्रीकृष्ण आगे उत्तर देते हैं कि केवल बाह्य कर्मों का त्याग (संन्यास) से पूर्ण मुक्ति संभव नहीं। सही त्याग वह है, जिसमें व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों का पालन करता है, लेकिन फल की आसक्ति से मुक्त रहता है।

जीवन में प्रासंगिकता

आज के समय, जब लोग तनाव मुक्त जीवन की चाह रखते हैं, यह श्लोक गहरा बोध देता है: जीवन में कर्म करना अनिवार्य है, लेकिन उससे जुड़ी अपेक्षाएं, चिंता और आसक्ति छोड़ना ही सच्चा त्याग है। यही मानसिक शांति और संतुलन का मार्ग है।

निष्कर्ष

अर्जुन का प्रश्न हर जिज्ञासु मन का प्रश्न है। गीता की शिक्षाएँ हमें कर्म का महत्व सिखाती हैं, लेकिन उससे भी अधिक, अपने भीतर के त्याग का महत्व समझाती हैं। तभी वास्तविक मोक्ष और संतुलन संभव है।

श्लोक और अर्थ:

अर्जुन उवाच संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥१८- १॥


अर्थ: अर्जुन ने कहा – हे महाबाहु श्रीकृष्ण! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को और उनका परस्पर भेद पृथक-पृथक जानना चाहता हूँ।

आपके विचार:
क्या आप भी जीवन में कभी ऐसे द्वंद्व से गुजरे हैं? संन्यास और त्याग के बीच आपके लिए क्या सही मार्ग है? नीचे कमेंट में साझा करें।

Sunday, October 22, 2023

भगवान श्री कृष्ण का मंत्र

 वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥

कंस और चाणूर का वध करनेवाले, देवकी के आनन्दवर्द्धन, वसुदेवनन्दन जगद्गुरु श्रीक़ृष्ण चन्द्र की मैं वन्दना करता हूँ ।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः

यह मंत्र भगवान विष्णु और श्री कृष्ण का मंत्र है।

ओम नामे भगवते वासुदेवया यह एक प्रसिद्ध हिन्दू मंत्र है। यह मंत्र भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण दोनों का मंत्र है। इसमें दो परंपराएं हैं-तांत्रिक और पुराणिक। तांत्रिक पंरपराये में ऋषि प्रजापति आते है और पुराणिक पंरपरा में ऋषि नारदा जी आते है। हालांकि, दोनों कहते हैं कि यह सर्वोच्च विष्णु मंत्र है। शारदा तिलक तन्त्रम कहते है कि ‘देवदर्शन महामंत्र् प्राधन वैष्णवगाम’ बारह वैष्णव मंत्रों में यह मत्रं प्रमुख हैं। इसी प्रकार ‘श्रीमद् भगवतम्’ के 12 अध्याय को इस मंत्र के 12 अक्षर के विस्तार के रूप में लिए गए है। इस मंत्र को मुक्ति का मंत्र कहा जाता है और मोक्ष प्राप्त करने के लिए एक आध्यात्मिक सूत्र के रूप में माना जाता है। यह मंत्र ‘श्रीमद् भगवतम्’ का प्रमुख मंत्र है इस मंत्र का वर्णन विष्णु पुराण में भी मिलता है।


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः


मंत्र का अर्थ:

ओम - ओम यह ब्रंह्माडीय व लौकीक ध्वनि है।

नमो - अभिवादन व नमस्कार।

भगवते - शक्तिशाली, दयालु व जो दिव्य है।

वासुदेवयः - वासु का अर्थ हैः सभी प्राणियों में जीवन और देवयः का अर्थ हैः ईश्वर। इसका मतलब है कि भगवान (जीवन/प्रकाश) जो सभी प्राणियों का जीवन है।


वासुदेव भगवान! अर्थात् जो वासुदेव भगवान नर में से नारायण बने, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। जब नारायण हो जाते हैं, तब वासुदेव कहलाते हैं।

आदि शंकराचार्य द्वारा लिखित "भज गोविंदम"

भज गोविंदम भज गोविंदम
गोविंदम भज मूढ़-मते |
संप्राप्ते सन्निहिते काले
नहि न रक्षति शुक्रकारणे ||


ॐ श्री कृष्णः शरणम् ममः

ॐ श्री कृष्णः शरणम् ममः


ॐ श्याम वासुदेवाय नमः


ॐ श्याम वासुदेवाय नमः

ॐ श्रीं नम: श्रीकृष्णाय मधुरतमाय स्वाहा," भगवान कृष्ण की दिव्य उपस्थिति और प्रचुरता का एक शक्तिशाली आह्वान है। 
"ॐ श्रीं नम: श्रीकृष्णाय स्तुत्यमय स्वाहा" 
ॐ श्रीं नम: श्रीकृष्ण परिपूर्णतमाय स्वाहा 
ॐ क्लीं कृष्णाय गोविंदाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा


ये छंद भगवान कृष्ण की प्रशंसा में हैं, विशेषकर उनके दिव्य रूप और उनके जन्म के दृश्य की।

ॐ देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।।

शङ्खचक्रगदापद्मं धारयन्तं जनार्दनम् ।
अङ्के शयानं देवक्याः सूतिकामन्दिरे शुभे ।।
एवं रूपं सदा कृष्ण सुतार्थं भावयेत् सुधीः ।।

शङ्खचक्रगदापद्मं दधानं सूतिकागृहे ।
अङ्के शयानं देवक्याः कृष्णं वन्दे विमुक्तये ।।

॥ देवकी सूत गोविंद वासुदेव जगतपते देहिमे तनय कृष्ण त्वाहम शरणगते ॥





Monday, October 16, 2023

Arjun ke Solah Prashan| अर्जुन के सोलह प्रश्न

महाभारत के भीष्म पर्व (जिसमें भगवद्गीता सम्मिलित है) के प्रारम्भ में युद्धभूमि पर अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से जीवन, धर्म, कर्तव्य, और युद्ध को लेकर कई गहन प्रश्न पूछे थे, जिनकी संख्या 16 मानी जाती है, लेकिन प्रामाणिक महाभारत या गीता में इन प्रश्नों की गिनती या स्पष्ट सूची सामान्यतः नहीं मिलती। 

क्रमप्रश्न का सारअध्याय और श्लोक
1स्थिरप्रज्ञ व्यक्ति के लक्षण क्या हैं?अध्याय 2, श्लोक 54
2ज्ञान कर्म से श्रेष्ठ है तो युद्ध क्यों करूं?अध्याय 3, श्लोक 1
3मनुष्य को पाप कर्म के लिए कौन प्रेरित करता है?अध्याय 3, श्लोक 36
4आप विवस्वान के बाद जन्मे फिर उन्हें कैसे गीता का ज्ञान दिया?अध्याय 4, श्लोक 4
5त्याग और कर्म योग में श्रेष्ठ कौन?अध्याय 5, श्लोक 1
6मन को नियंत्रित करना कठिन क्यों है?अध्याय 6, श्लोक 34
7योग का मार्ग बीच में छोड़ने वाले का क्या होता है?अध्याय 6, श्लोक 37
8ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ क्या हैं?अध्याय 8, श्लोक 1-2
9आपके ऐश्वर्य का विस्तार बताइएअध्याय 10, श्लोक 16
10आपका विराट रूप दिखाइएअध्याय 11, श्लोक 3
11आप कौन हैं, आपके वास्तविक स्वरूप क्या है?अध्याय 11, श्लोक 31
12साकार और निराकार उपासक में श्रेष्ठ कौन है?अध्याय 12, श्लोक 1
13क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, प्रकृति और पुरुष क्या हैं?अध्याय 13, श्लोक 1
14तीन गुण से परे व्यक्ति के लक्षण क्या हैं?अध्याय 14, श्लोक 21
15श्रद्धा के तीन प्रकार का विवेचनअध्याय 17, श्लोक 1
16संन्यास और त्याग में अंतर क्या है?अध्याय 18, श्लोक 1


1. स्थिरप्रज्ञ व्यक्ति के लक्षण (अध्याय 2, श्लोक 54)  
अर्जुन उवाच - स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव। स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥

2. ज्ञान कर्म से श्रेष्ठ, फिर युद्ध क्यों? (अध्याय 3, श्लोक 1)  
अर्जुन उवाच - ज्यायसी चेत् कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन। तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥

3. पाप कर्म के लिए प्रेरणा क्यों? (अध्याय 3, श्लोक 36)  
अर्जुन उवाच - अथ केन प्रयुक्तो ’यं पापं चरति पूरुषः। अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥

4. विवस्वान के बाद ज्ञान कैसे दिया? (अध्याय 4, श्लोक 4)  
अर्जुन उवाच - अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः। कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥

5. त्याग और कर्म योग में श्रेष्ठ कौन? (अध्याय 5, श्लोक 1)  
अर्जुन उवाच - संन्यासं कर्मयोगं च नि:श्रेयसमिति श्रुतः। तयोः यत्कर्म यत: कार्यं क्रियाविशेषमाह तदा॥

6. मन नियंत्रित करना कठिन क्यों? (अध्याय 6, श्लोक 34)  
अर्जुन उवाच - चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥

7. योग का मार्ग छोड़ने का परिणाम? (अध्याय 6, श्लोक 37)  
अर्जुन उवाच - अयतिः श्रद्धयोपेतः योगाच्चलितमानसः। अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥

8. ब्रह्म, अधिभूत आदि क्या हैं? (अध्याय 8, श्लोक 1-2)  
अर्जुन उवाच - किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम। अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥  
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन। प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥

9. आपके ऐश्वर्य का विस्तार बताइए (अध्याय 10, श्लोक 16)  
अर्जुन उवाच - विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन। भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥

10. आपका विराट रूप दिखाइए (अध्याय 11, श्लोक 3)  
अर्जुन उवाच - अनेकवक्त्रनयनं अनेकदंष्ट्रितोर्ध्व नीतरुचि। अनेकसर्पोद्भूतं मुखमव्यक्तमिदं वृणु।

11. आप कौन हैं? वास्तविक स्वरूप क्या? (अध्याय 11, श्लोक 31)  
अर्जुन उवाच - किमेतद् व्याप्यस्त्वमस्य विश्वमनन्तरूप। इदं त्वं जगदेकं नानावद्भिः पोषितमन्नम्॥

12. साकार और निराकार उपासक में श्रेष्ठ कौन? (अध्याय 12, श्लोक 1)  
अर्जुन उवाच - एवं सततयुक्ता ye भक्तास्त्वां पर्युपासते। ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा:।

13. क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, प्रकृति, पुरुष क्या? (अध्याय 13, श्लोक 1)  
अर्जुन उवाच - प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च। एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव॥

14. तीन गुण से परे व्यक्ति के लक्षण? (अध्याय 14, श्लोक 21)  
अर्जुन उवाच - कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो। किमाचारः कथं चेतां स्त्रीन्गुणानतिवर्तते॥

15. श्रद्धा के तीन प्रकार? (अध्याय 17, श्लोक 1)  
अर्जुन उवाच - ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः॥

16. संन्यास और त्याग में अंतर? (अध्याय 18, श्लोक 1)  
अर्जुन उवाच - संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्। त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥


गीता पर भाष्य


संस्कृत साहित्य की परम्परा में उन ग्रन्थों को भाष्य (शाब्दिक अर्थ - व्याख्या के योग्य), कहते हैं जो दूसरे ग्रन्थों के अर्थ की वृहद व्याख्या या टीका प्रस्तुत करते हैं। भारतीय दार्शनिक परंपरा में किसी भी नये दर्शन को या किसी दर्शन के नये स्वरूप को जड़ जमाने के लिए जिन तीन ग्रन्थों पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना पड़ता था (अर्थात् भाष्य लिखकर) उनमें भगवद्गीता भी एक है (अन्य दो हैं- उपनिषद् तथा ब्रह्मसूत्र)। [4]


गीता पर अनेक अचार्यों एवं विद्वानों ने टीकाएँ की हैं। संप्रदायों के अनुसार उनकी संक्षिप्त सूची इस प्रकार है :


(अ) अद्वैत - शांकराभाष्य, श्रीधरकृत सुबोधिनी, मधुसूदन सरस्वतीकृत गूढ़ार्थदीपिका।

(आ) विशिष्टाद्वैत -

(१) यामुनाचार्य कृत गीता अर्थसंग्रह, जिसपर वेदांतदेशिककृत गीतार्थ-संग्रह रक्षा टीका है।

(२) रामानुजाचार्यकृत गीताभाष्य, जिसपर वेदांतदेशिककृत तात्पर्यचंद्रिका टीका है।

(इ) द्वैत - मध्वाचार्य कृत गीताभाष्य, जिसपर जयतीर्थकृत प्रमेयदीपिका टीका है, मध्वाचार्यकृत गीता-तात्पर्य निर्णय।

(ई) शुद्धाद्वैत - वल्लभाचार्य कृत तत्वदीपिका, जिसपर पुरुषोत्तमकृत अमृततरंगिणी टीका है।

(उ) कश्मीरी टीकाएँ - १. अभिनवगुप्तकृत गीतार्थ संग्रह। २. आनंदवर्धनकृत ज्ञानकर्मसमुच्चय।

इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र संत ज्ञानदेव या ज्ञानेश्वरकृत भावार्थदीपिका नाम की टीका (१२९०) प्रसिद्ध है जो गीता के ज्ञान को भावात्मक काव्यशैली में प्रकट करती है। महाराष्ट्र मे महानुभाव संप्रदाय के संस्थापक चक्रधर स्वामी इनके महानुभाव तत्वज्ञान पर आधारित मुरलीधर शास्त्री आराध्ये इन्होने रहस्यार्थ चंद्रिका नाम की गीता टीका लिखी है। इसके सीवा महानुभाव संप्रदाय मे और भी 52 गीता टीका उपलब्ध है। वर्तमान युग में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलककृत गीतारहस्य टीका, जो अत्यंत विस्तृत भूमिका तथा विवेचन के साथ पहली बार १९१५ ई। में पूना से प्रकाशित हुई थी, गीता साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। उसने गीता के मूल अर्थों को विद्वानों तक पहुँचाने में ऐसा मोड़ दिया है जो शंकराचार्य के बाद आज तक संभव नहीं हुआ था। वस्तुत: शंकराचार्य का भाष्य गीता का मुख्य अर्थ ज्ञानपरक करता है जबकि तिलक ने गीता को कर्म का प्रतिपादक शस्त्र सिद्ध किया है।


गीताभाष्य - आदि शंकराचार्य

गीताभाष्य - रामानुज

गूढार्थदीपिका टीका - मधुसूदन सरस्वती

सुबोधिनी टीका - श्रीधर स्वामी

ज्ञानेश्वरी - संत ज्ञानेश्वर (संस्कृत से गीता का मराठी अनुवाद)

गीतारहस्य - बालगंगाधर तिलक

अनासक्ति योग - महात्मा गांधी

Essays on Gita - अरविन्द घोष

ईश्वरार्जुन संवाद- परमहंस योगानन्द

गीता-प्रवचन - विनोबा भावे

गीता तत्व विवेचनी टीका - जयदयाल गोयन्दका

भगवदगीता का सार- स्वामी क्रियानन्द

गीता साधक संजीवनी (टीका)- स्वामी रामसुखदास

गीता हृदय-यति राज दण्डी स्वामी सहजानंद सरस्वती

श्रीमद्भगवद्गीता (आध्यात्मिक गीता के नाम से प्रसिद्ध) - योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी व श्री भूपेद्रनाथ सान्याल जी की टीका और गोपीनाथ कविराज जी द्वारा भूमिका [5]

भगवद्गीता पर उपलब्ध सभी भाष्यों में श्री जयदयाल गोयन्दका की तत्व विवेचनी सर्वाधिक लोकप्रिय तथा जनसुलभ है। इसका प्रकाशन गीताप्रेस के द्वारा किया जाता है। आजतक इसकी 10 करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं।

सम्पूर्ण गीता का एक मात्र श्लोक जो अन्ध वृद्ध राजा धृतराष्ट्र ने कहा

 सम्पूर्ण गीता का एक मात्र श्लोक जो  अन्ध वृद्ध राजा धृतराष्ट्र ने कहा


महाभारत में धृतराष्ट्र हस्तिनापुर के महाराज विचित्रवीर्य की पहली पत्नी अंबिका के पुत्र थे। उनका जन्म महर्षि वेद व्यास के वरदान स्वरूप हुआ था। हस्तिनापुर के ये नेत्रहीन महाराज सौ पुत्रों और एक पुत्री के पिता थे। उनकी पत्नी का नाम गांधारी था।


गीता का उपदेश  दो घड़ी तक चला था दो घड़ी अर्थात 48 मिनट । 


 सम्पूर्ण गीता में यही एक मात्र श्लोक अन्ध वृद्ध राजा धृतराष्ट्र ने कहा है। शेष सभी श्लोक संजय के कहे हुए हैं जो धृतराष्ट्र को युद्ध के पूर्व की घटनाओं का वृत्तान्त सुना रहा था।

धृतराष्ट्र उवाच | धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः | मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय || १ ||

धृतराष्ट्र: उवाच - राजा धृतराष्ट्र ने कहा; धर्म-क्षेत्रे - धर्मभूमि (तीर्थस्थल) में; कुरु-क्षेत्रे -कुरुक्षेत्र नामक स्थान में; समवेता: - एकत्र ; युयुत्सवः - युद्ध करने की इच्छा से; मामकाः -मेरे पक्ष (पुत्रों); पाण्डवा: - पाण्डु के पुत्रों ने; च - तथा; एव - निश्चय ही; अकुर्वत - क्या; किया; सञ्जय - हे संजय ।


CH 5 Shlok1

अर्जुन उवाच। संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि । यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥5.1॥

अर्जुन का यह प्रश्न दर्शाता है कि वह भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों को समझने का प्रयास कर रहा था। अर्जुन कहता है कि श्रीकृष्ण एक ओर तो कर्मों का त्याग करने की बात करते हैं, दूसरी ओर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। इन दोनों में से कौन-सा मार्ग उसके लिए अधिक कल्याणकारी होगा, यह स्पष्ट नहीं है। यहाँ अर्जुन ने एक महत्वपूर्ण बात कही है कि एक ही व्यक्ति दोनों का अनुष्ठान एक साथ नहीं कर सकता। उसे लगता है कि श्रीकृष्ण कर्मसंन्यास और कर्मयोग के बीच में उसे चुनने को कह रहे हैं। परंतु वास्तव में श्रीकृष्ण यह समझाना चाहते थे कि ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, बल्कि एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए आवश्यक हैं। अतः अर्जुन ज्ञान के अभाव में इन्हें पृथक-पृथक समझ रहा था।

Sunday, October 15, 2023

गीता नाम के अन्य ग्रन्थ

भगवद गीता के अलावा भारतीय साहित्य और धर्मग्रंथों में कई अन्य गीता नामक ग्रंथ हैं। यहाँ कुछ प्रमुख गीता नामक ग्रंथों का उल्लेख किया जा रहा है:


अद्वैत वेदांत गीता: यह ग्रंथ अद्वैत वेदांत दर्शन के मूल सिद्धांतों को समझाने के लिए लिखा गया है।

आस्तिक्य परम्परागत गीता: इस ग्रंथ में हिन्दू आस्तिक धर्म के महत्वपूर्ण विषयों का विवेचन किया गया है।

उपनिषद गीता: यह ग्रंथ उपनिषदों के तत्त्वों को समझाने के लिए लिखा गया है।


आदिशंकराचार्य कृत विवेकचूडामणि: यह ग्रंथ आदिशंकराचार्य द्वारा लिखा गया है और वेदांत दर्शन के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को समझाने के लिए है।

योगवासिष्ठ: योगवासिष्ठ ग्रंथ में भगवान राम के जीवन के अनुभव और उनके गुरु वासिष्ठ के उपदेश का वर्णन किया गया है।

अष्टावक्र गीता: इस ग्रंथ में राजा जनक और ऋषि अष्टावक्र के बीच हुए विचार-विमर्श का वर्णन है।


ये गीता नामक ग्रंथ भारतीय धर्म, दर्शन, और आध्यात्मिकता के विभिन्न पहलुओं को समझाने और उनका अध्ययन करने के लिए महत्वपूर्ण हैं।





अवधूत गीता

कपिल गीता

श्रीराम गीता

श्रुति गीता

उद्धव गीता

वैष्णव गीता

कृषि गीता

गुरु गीता

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