Sunday, November 2, 2025

CH18-01 | अर्जुन का प्रश्न: संन्यास और त्याग का सार – गीता, अध्याय १८, श्लोक १

परिचय

श्रीमद्भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय का पहला श्लोक योग और जीवन की जटिलता को स्पष्ट रूप से सामने लाता है। अर्जुन, जो युद्धभूमि में अपने मार्गदर्शक श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन प्राप्त कर रहे हैं, एक अत्यंत गूढ़ प्रश्न पूछते हैं — संन्यास और त्याग का वास्तविक तत्त्व क्या है? दोनों में क्या अंतर है? उनका अंतिम उद्देश्य आत्मज्ञान और कर्म की सही समझ है।

श्लोक

अर्जुन उवाच संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥१८- १॥

हिन्दी भावार्थ:

अर्जुन बोले: हे महाबाहु श्रीकृष्ण, मैं संन्यास (कर्मों के पूर्ण त्याग) और त्याग (कर्म के फल की इच्छा के त्याग) का वास्तविक तत्त्व जानना चाहता हूँ। हे हृषीकेश, हे केशिनिषूदन! कृपया इन दोनों का भेद भी पृथक-पृथक करके बताइये।

समस्या की पृष्ठभूमि

अर्जुन के इस प्रश्न का महत्व उसके गहरे अंतर्द्वंद्व में छुपा है। जीवन और धर्म के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए मनुष्य को अक्सर यह समझ नहीं आती कि क्या सभी कर्म छोड़ देना ही मोक्ष का मार्ग है या अपनी जिम्मेदारियों का पालन करते हुए फल की आसक्ति छोड़ देना ही सार्थक है। गीता का यह श्लोक उसी द्वंद्व का दर्पण है।

संन्यास बनाम त्याग

संन्यासत्याग
कर्म का परित्यागकर्म का फल छोड़ना
जीवन की सभी जिम्मेदारियों से विमुखताकर्तव्य का पालन, बिना फल की इच्छा के
साधना की धारा में कर्म-शून्यतासाधना में फल-सून्यता

 श्रीकृष्ण आगे उत्तर देते हैं कि केवल बाह्य कर्मों का त्याग (संन्यास) से पूर्ण मुक्ति संभव नहीं। सही त्याग वह है, जिसमें व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों का पालन करता है, लेकिन फल की आसक्ति से मुक्त रहता है।

जीवन में प्रासंगिकता

आज के समय, जब लोग तनाव मुक्त जीवन की चाह रखते हैं, यह श्लोक गहरा बोध देता है: जीवन में कर्म करना अनिवार्य है, लेकिन उससे जुड़ी अपेक्षाएं, चिंता और आसक्ति छोड़ना ही सच्चा त्याग है। यही मानसिक शांति और संतुलन का मार्ग है।

निष्कर्ष

अर्जुन का प्रश्न हर जिज्ञासु मन का प्रश्न है। गीता की शिक्षाएँ हमें कर्म का महत्व सिखाती हैं, लेकिन उससे भी अधिक, अपने भीतर के त्याग का महत्व समझाती हैं। तभी वास्तविक मोक्ष और संतुलन संभव है।

श्लोक और अर्थ:

अर्जुन उवाच संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥१८- १॥


अर्थ: अर्जुन ने कहा – हे महाबाहु श्रीकृष्ण! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को और उनका परस्पर भेद पृथक-पृथक जानना चाहता हूँ।

आपके विचार:
क्या आप भी जीवन में कभी ऐसे द्वंद्व से गुजरे हैं? संन्यास और त्याग के बीच आपके लिए क्या सही मार्ग है? नीचे कमेंट में साझा करें।

No comments:

Labels

01 10 messages 1201-1202 answer Bhagavad Gita CH-1 CH-10 CH-11 CH-12 CH-13 Ch-14 CH-15 CH-16 CH-17 CH-18 CH-2 CH-3 CH-4 CH-5 CH-6 CH-7 CH-8 Ch-9 Characters doubts Epilogue Facts Geeta Gita Gita Articles Jayanti Know Gita parenting Principal question Resources Teachings अक्षरब्रह्मयोगः अध्यायः १० अध्यायः ११ अध्यायः १२ अध्यायः १३ अध्यायः १४ अध्यायः १५ अध्यायः १६ अध्यायः १७ अध्यायः २ अध्यायः ३ अध्यायः ४ अध्यायः ५ अध्यायः ६ अध्यायः ७ अध्यायः ८ अध्यायः ९ अर्जुन के 12 नाम अष्टादशोऽध्याय: आत्मसंयमयोगः उपसंहार कर्मयोगः कर्मसंन्यासयोगः क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगः गुणत्रयविभागयोगः ज्ञानकर्मसंन्यासयोगः ज्ञानविज्ञानयोगः त्याग का अर्थ दैवासुरसम्पद्विभागयोगः ध्यान निष्कर्ष पात्र पुरुषोत्तमयोगः प्रथमोऽध्यायः भक्तियोगः भगवद्गीता संन्यास महाभारत युद्ध मुख्य कारण मोक्षसंन्यासयोग राजविद्याराजगुह्ययोगः विभूतियोगः विश्वरूपदर्शनयोगः श्रद्धात्रयविभागयोगः सन्यास और त्याग में अंतर संसाधन संसार के चक्र साङ्ख्ययोगः