Wednesday, January 3, 1990

कर्मसंन्यास और कर्मयोग

 गीता के अनुसार कर्मों से संन्यास लेने अथवा उनका परित्याग करने की अपेक्षा कर्मयोग अधिक श्रेयस्कर है। कर्मों का केवल परित्याग कर देने से मनुष्य सिद्धि अथवा परमपद नहीं प्राप्त करता। मनुष्य एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रहता। ||5.1||


कर्मयोग अर्थात कर्म में लीन होना। योगा कर्मो किशलयाम, योग: कर्मसु कौशलम्। धर्माचरण करके पापों का क्षय करना और अपने विकास की ओर बढ़ना; परन्तु "फल की आकांक्षा न रखते हुए कर्म करना" ही कर्मयोग है।


कर्मसंन्यास 

कर्म संन्यास ऐसे लोगों के लिए एक आदर्श जीवन शैली है जो समाज,में रहते हुए अपनी उच्च चेतना का विकास करना चाहते हैं । कर्म संन्यास का मुख्य ध्येय है, साक्षी भाव से जीवन की सभी गतिविधियों में भाग लेना और नाहं कर्ता हरि कर्त्ता ही केवलम् की भावना का विकास करना । कर्म संन्यास हमारी आसक्तियों, इच्छाओं एवं महत्वाकांक्षाओं को सही दिशा देकर, आध्यात्मिक चेतना के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है ।


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